1921 ई में जब दयाराम साहनी ने हड़प्पा क्षेत्र में उत्खनन कार्य आरंभ किया तब पूरा विश्व भारत के प्राचीनतम सांस्कृतिक वैभव को देख कर स्तब्ध रह गया था। विश्व के समक्ष 2,500 ई पू भारत की एक ऐसी सभ्यता सामने आई जिस की तुलना में विश्व की अन्य प्राचीनतम सभ्यताओं का विकासक्रम नगण्य था। यह तथ्य तत्कालीन पुस्तकों से , उनमें लिखित सामग्री अथवा अन्य पठनीय लेखों से नहीं अपितु वहाँ से उत्खनित सामग्री से प्रकट हुआ था । हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो नामक दो स्थानों पर विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के पुरातत्त्वशेष प्राप्त हुए हैं। इसको ‘हड़प्पा सभ्यता’ अथवा ‘सिंधु सभ्यता’ भी कहा जाता है। यद्यपि इसका विस्तार बलूचिस्तान, सिंध , हरियाणा, गुजरात,पंजाब , राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था तथापि मोहन-जो-दड़ो में सर्वाधिक वैभवशाली पुरातत्त्वशेष प्राप्त हुए हैं.
‘मोहन-जो-दड़ो’ एक सिंधी शब्द है। इसका अर्थ है-‘ मूर्दों का टीला’। वास्तव में इस का मूल नाम ‘मूर्दों का टीला’ नहीं था, मूल नाम आज भी अज्ञात है। इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं ने क्षेत्रीय नामों के आधार पर इस नगर का नाम ‘मोहन-जो-दड़ो रख दिया।
खोज-
मोहन-जो-दड़ो की पुरातात्त्विक खोज 1922 ई में राखाल दास बैनर्जी ने की थी। भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शल के निरीक्षण में उत्खनन कार्य आरंभ हुआ। उत्खनन में बड़ी मात्रा में इमारतें, धातुओं की मूर्तियाँ, मोहरें तथा अन्य सामान मिला। पिछले सौ वर्षों में अबतक इस नगर के केवल एक तिहाई भाग की खोज हो सकी है। अब काफी समय से उत्खनन कार्य बंद है। अनुमानतः यह क्षेत्र 200 हेक्टेयर भूमि पर फैला हुआ था। वर्तमान में पाकिस्तान में सक्खर जिले में स्थित है। यह विश्व का प्राचीनतम, सुनियोजित तथा विकसित नगर माना जाता है।
विश्व की चार प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं-पुरातन मिस्र, मेसोपोटेमिया, क्रेटे, मोहन-जो-दड़ो में मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता सर्वाधिक विकसित थी। 1980 ई में यूनेस्को ने मोहन-जो-दड़ो के पुरातत्त्वशेषों को सांस्कृतिक विश्व विरासत की सूची में स्थान दिया था।
इस सभ्यता के प्रकाश में आने से भारत का गौरवशाली इतिहास प्रागैतिहासकाल से बहुत पीछे चला जाता है। जिस समय पाश्चात्य जगत अज्ञानता के अंधकार में विलीन था उस समय एशिया महाद्वीप के भारत में अत्यधिक विकसित सभ्यता का साम्राज्य था।
मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में प्राप्त लिपि को समझने में आज भी भाषाविद, इतिहासकार माथा-पच्ची कर रहे हैं। आज भी रहस्य बरकरार है।
नगर निर्माण-
यह एक तथ्य है कि मोहन-जो-दड़ो अपने समय का उत्कृष्ट रूप से नियोजित नगर था। पुरातत्त्वशेषों में अनेक ऐसे उपकरण प्राप्त हुए हैं जिन का उपयोग आज भी निर्माण कार्यों में किया जाता है। वहाँ की चौड़ी सड़कों और गलियों में आराम सेघूमा जा सकता है। यह नगर आज भी वहीं पर स्थित है। यहाँ की सड़कें चौड़ी थी तथा उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम की ओर जाती थीं। इमारतें ऊंचे-ऊंचे चबूतरों पर अलग खंडों में बनी हुई थी। इमारतों का निर्माण पक्की ईंटों से किया गया था। दीवारों की मोटाई, सीढ़ियों , दीवारों में काटी गयी नालियों से स्पष्ट है कि इमारतें बहुमंज़िली भी होती थी। घरों में आँगन, कमरे, शौचालय आदि की व्यवस्था होती थी। नालियों की व्यवस्थता तथा स्वच्छता का जैसा प्रबंध मोहन-जो-दड़ो में है वैसा विश्व के किसी भी देश में शताब्दियों तक देखने को नहीं मिलता।
प्रसिद्ध जलकुंड-
मोहन-जो-दड़ो की प्रसिद्ध इमारतों में ‘विशाल स्नानागार’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह दैव-मार्ग गली में स्थित लगभग 40 फीट लम्बा और 25 फीट चौड़ा जलकुंड है। इसकी गहराई 7 फीट है। भीतर जाने के लिए उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी हैं। कुंड के तीन ओर साधुओं के लिए कक्ष बने थे। उत्तर में दो पंक्तियों में आठ स्नानघर थे। इन का निर्माण बहुत कुशलता के साथ किया गया था। किसी भी स्नानघर का द्वार दूसरे स्नानघर के सामने नहीं खुलता था। जलरोधी बनाने के लिए जलकुंड का फर्श ईंटों को अच्छी तरह से घिस कर बनाया गया था। दीवारों के पीछे 2.54 से.मी मोटे बिटूमेन का लेप किया गया था। कुंड में पानी भरने के लिए समीप ही कुआं था और गंदे पानी की निकासी के लिए ऊंची मेहराबदार नाली थी। जॉन मार्शल के अनुसार उस समय उपलब्ध सामग्री से इससे अधिक सुंदर और मजबूत निर्माण कर पाना असंभव था।
अन्नागार-
जलकुंड के पश्चिम में एक विशाल अन्नागार था। यह सत्ताईस खंडों में विभाजित था। इसमें संग्रहीत अनाज को भूमितल की नमी से बचाने के लिए हवा गुजरने के लिए बीच में एक संकरी गली थी। ऊपरी भाग लकड़ी के खंभों पर टिका था। उस समय जब सिक्कों का प्रचलन नहीं रहा होगा तब अन्नागार का महत्त्व आर्थिक रूप से अत्यधिक रहा होगा। कर अनाज के रूप में वसूल किया जाता होगा और वेतन भी अनाज के ही रूप में दिया जाता होगा।
कृषि-
खुदाई में इस बात के प्रमाण मिले हैं कि यह सभ्यता कृषि और पशुपालन पर आधारित रही होगी। यहाँ पर खेती के लिए सिंध के पत्थरों और राजस्थान के तांबे से बनाए गए उपकरणों का उपयोग होता था। उत्खनन में गेंहू, सरसों, कपास, जौ और चने की खेती के प्रमाण मिले हैं। यहाँ पर कई प्रकार की खेती होती थी। कपास को छोड़ कर अन्य सभी बीज़ यहाँ पर मिले हैं। विश्व में सूट के सबसे पुराने दो कपड़ों में से एक का नमूना यहीं पर मिला था। खुदाई में यहाँ पर कपड़ों की रंगाई करने का एक कारख़ाना भी मिला है।
नगर नियोजन-
मोहन-जो-दड़ो की इमारतें यद्यपि अब खंडहरों में परिवर्तित हो चुकी हैं तथापि सड़कों तथा गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये पुरातत्त्वशेष ही पर्याप्त हैं। सड़कों का निर्माण ग्रिड प्रणाली पर आधारित है। पूर्व में सम्पन्न लोगों का इलाका है क्योंकि यहाँ पर बड़े घर,चौड़ी सड़कें तथा बहुत सारे कुएं हैं। नगर की सड़कें इतनी चौड़ी हैं कि दो बैलगाड़ियाँ एक साथ गुजर सकती हैं। बिशेष रूप से उल्लेखनीय बात यह है कि सड़क की तरफ घरों का पिछवाड़ा है, प्रवेशद्वार अंदर गली में है। स्वास्थ्य, प्रदूषण के दृष्टिकोण से नगर निर्माण की योजना अद्वितीय है।
जल-संस्कृति-
इतिहासकारों के मतानुसार मोहन-जो-दड़ो सिंधु घाटी सभ्यता कुएं खोद कर भूजल तक पंहुचने वाली पहली सभ्यता है। यहाँ पर लगभग 700 कुएं पाए गए हैं। बेजोड़ जलनिकासी, कुओं, बावड़ियों और नदियों को देख कर कहा जा सकता है कि ‘मोहन-जो-दड़ो सभ्यता वस्तुतः जल संस्कृति थी।
कला,शिल्प-
मोहन-जो-दड़ो के निवासी उत्कृष्ट शिल्पकार व कलाकार थे। वास्तुकला अथवा नगर निर्माण ही नहीं अपितु धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृदाभांडों पर मानव, वनस्पति, पशु-पक्षियों का चित्रांकन, मोहरें, उनपर उत्कीर्ण महीन आकृतियाँ, खिलौने, केश विन्यास,आभूषण और सुंदर लिपि से सिंधु सभ्यता की तकनीकी निपुणता के साथ-साथ सुरुचिपूर्ण कला और शिल्प का भी पता चलता है। पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार सिंधु सभ्यता की विशेषता उसका सौंदर्यबोध है। यह राजपोषित अथवा धर्मपोषित न हो कर समाजपोषित थी। मोहन-जो-दड़ो उत्खनन में एक विशेषता देखने को मिलती है। यहाँ पर कोई महल,मंदिर अथवा स्मारक नहीं मिले। पुरातत्त्वशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहन-जो-दड़ो में राजसत्ता न हो कर लोकतन्त्र था। लोग सुशासन, विनम्रता और स्वच्छता में विश्वास करते थे। युद्ध का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था।
धर्म-
इस सभ्यता में धर्म ने प्रकृति से चल कर देवत्व तक की यात्रा निर्धारित थी। एक ओर वृक्ष पूजा के साक्ष्य मिलते हैं तो दूसरी ओर पशुपति शिव की मूर्ति तथा देवी की पूजा के व्यापक प्रमाण मिलते हैं। यहाँ प्राप्त चित्रण से ज्ञात होता है कि उस समय देवता और दानव दोनों ही उपास्य थे। अध्यात्म और कर्मकांड दोनों विद्यमान थे। धडविहीन ध्यानावस्थित सन्यासी की आकृति आध्यात्मिक चेतना की प्रतीक है तो देवी के सन्मुख पशुबलि के लिए बंधे बकरे की आकृति गहनतम कर्मकांड की प्रतीक। प्रमुख धार्मिक स्वरूप शैवधर्म, शिव आर्यों के पूर्व भारत के मूलवासियों तथा आर्येत्तर जातियों के आराध्य रहे हैं। शिव उत्पादन के देवता के रूप में उपास्य थे। शिव के साथ बैल का चित्रण उनका उस काल के उत्पादक देवता होने का बोध कराता है। आज भी कृषि में बैलों तथा सांडों का उपयोग होता है। शिव पूजा का प्रारम्भ हड़प्पा काल से माना जाता है। पुरातत्त्वशेषों में कुछ मुहरों पर स्वस्तिक तथा सूर्य का चिन्ह इस ओर संकेत करते हैं कि उस समय वैष्णव सम्प्रदाय पूर्णरूप से विकसित न हुआ हो परंतु उसका बीजारोपण हो चुका था। आदिकाल से ही सभ्यताओं में शक्ति पूजा का विधान रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी देवी की उपासना के साक्ष्य मिलते हैं। शक्ति की उपासना पृथ्वी से सम्बद्ध है वहीं से आरंभ होती है ‘मातृदेवो’ की भावना। मोहन-जो-दड़ो में एक मुद्रा पर अंकित सात मानव आकृतियाँ ‘सप्तमातृका’ का बोध करवाती है। वह युग धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों का युग रहा होगा। तंत्र-मंत्र भी प्रचलन में रहा होगा।
संग्रहालय-
मोहन-जो-दड़ो में स्थित संग्रहालय छोटा ही है। प्रमुख वस्तुएँ कराची, लाहोर, दिल्ली और लंदन के संग्रहालयों में संरक्षित हैं। यहाँ पर काला पड़ गया गेंहू, तांबे और कांसे के बर्तन,मुहरें, चाक पर बने विशाल मृदाभांड, उन पर चित्रित काले-भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल के पत्थर, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटों वाली चक्की, कंघी, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औज़ार रखे हुए हैं। संग्रहालय में रखी वस्तुओं में सूइयाँ भी हैं। खुदाई में तांबे और कांसे की बहुत सारी सुइयां मिली थी। इन में से एक सुई दो इंच लम्बी थी। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयां मिली थी। समझा जाता है कि ये सुइयां महीन कशीदाकारी के काम में आती होंगी। इन के अतिरिक्त हाथीदांत और तांबे के सुए भी मिले हैं।
पतन-
सिंधु घाटी सभ्यता के विलुप्त होने का अभी तक कोई ठोस कारण नहीं मिला है। कुछ इस का कारण प्राकृतिक आपदाएँ,भूकम्प इत्यादि मानते हैं जबकि अन्य रेडियो एक्टिव विकिरणों को इस विनाश का कारण मानते हैं। जो भी हो मोहन-जो-दड़ो के आँचल में छिपा है एक गौरवशाली सभ्यता-संस्कृति का इतिहास।
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प्रमीला गुप्ता
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