इस्तांबुल अथवा कान्स्टेण्टिपोल के नाम से कल्पना में उभरने लगती है मस्जिदों,मीनारों, बोसपोरस, जलडमरू, बैले नर्तकियों की छवि। विमान से इस्तांबुल के विशाल अतातुर्क एयरपोर्ट पर उतरने के बाद यह छवि धूमिल पड़ जाती है। भव्य अतातुर्क एयरपोर्ट के सामने यूरोप के कुछ एयरपोर्ट भी फीके दिखाई देंगे। इस्तांबुल के आँचल में सिमटे हैं पूर्वी तथा पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के अनेक रहस्य।
एशिया तथा यूरोप के दो विशाल महाद्वीपों के मध्य स्थित इस्तांबुल विश्व का एकमात्र शहर है। 657 बीसी में ग्रीक निर्माता बायजन्स ने इस शहर की आधारशिला रखी थी व अपने नाम पर शहर का नाम ‘बायज़ेंटियम’ रखा। दो महाद्वीपों के बीच स्थित होने के कारण उस समय व्यापारिक दृष्टिकोण से यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था। दोनों द्वीपों के व्यापारी इस शहर से हो कर गुजरते,यहाँ पर ठहरते तथा स्थानीय लोगों के साथ भी व्यापार करते थे। परिणामस्वरूप यह दिनोंदिन समृद्ध होता चला गया और शक्तिसम्पन्न देशों की आँखों की किरकिरी बन गया। 330 ई में कान्स्टेंटाइन दी ग्रेट ने इस शहर पर आधिपत्य कर लिया और इसे रोमन साम्राज्य की राजधानी बना लिया। 1926 तक यह शहर पाश्चात्य जगत में कान्स्टेण्टिपोल के नाम से ही जाना जाता था। वर्तमान में यह पुरातन ऐतिहासिक शहर विश्व विजेताओं की अपेक्षा सम्पूर्ण विश्व के पर्यटकों का लोकप्रिय भ्रमण स्थल है। सागरतट पर बसा यह शहर सामान्य तथा सम्पन्न पर्यटकों का समान रूप से आकर्षण का केंद्र है। इसके ऐतिहासिक महत्त्व तथा विशिष्ट स्थापत्य कला के कारण यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने 1985 ई में विश्व विरासत के रूप में इसको मान्यता प्रदान कर दी थी।
अहमत स्क्वेयर
पुरातन इस्तांबुल सुल्तान अहमत स्क्वेयर के इर्द-गिर्द बसा है। यहाँ की गलियों में लोगों को रेहड़ियों पर सामान बेचते, मजदूरों को माल ढोते और बच्चों को जूते पालिश करते देख यकायक दिल्ली के चाँदनी चौक की याद आ जाती है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक, भव्य स्मारक व दर्शनीय स्थल ‘तोपकापी पैलेस’, ‘अया सोफिया’, ‘नीली मस्जिद’ भी सुल्तान अहमत स्क्वेयर में स्थित है। समीप ही है पाँच सौ साल पुराना ‘ग्रांड बाज़ार’।
तोपकापी पैलेस
पिछले साढ़े पाँच सौ वर्षों से तोपकापी पैलेस में ओटोमन साम्राज्य का दिल धड़कता है। 1453 ई में कान्स्टेण्टिपोल पर अधिकार करने के बाद सुल्तान अहमत द्वितीय ने शहर के बीच तोपकापी पैलेस का निर्माण करवाया था। चार विशाल प्रांगणों के बीच निर्मित है पैलेस। स्वयं को ईश्वरीय दूत समझने वाले सुल्तान इस पैलेस में अपनी अगणित पत्नियों के साथ रहते थे। उनके लिए पृथक आलीशान अंतःपुर बने हुए थे।
1924 ई में तुर्की को गणतन्त्र राष्ट्र घोषित करने के बाद पैलेस को म्यूज़ियम में परिवर्तित कर दिया गया था। यहाँ पर तुर्की सभ्यता,संस्कृति के प्राचीनतम स्मृतिचिन्ह संरक्षित हैं। सुल्तानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले बहुमूल्य रत्नजड़ित वस्त्र, आभूषण, सिंहासन, शिल्पाकृतियाँ देख कर आँखें चौंधिया जाती हैं। सभी वस्तुओं को तत्कालीन पृष्ठभूमि में सजा कर रखा हुआ है।
सुंदर इजनिक टाइलों से निर्मित हैं कैफे। तुर्की भाषा में ‘कैफे’ का अर्थ है-पिंजरा। राजगद्दी के लिए विद्रोह को रोकने के विचार से राजकुमारों को बाल्यकाल से ही इस ‘पिंजरे’ में बंद कर दिया जाता था। मूक-बधिर दास उनकी सेवा करते थे। दो साल की नन्ही उम्र से ही इस पिंजरे में रहने के कारण कई बार राजकुमार राजगद्दी पर बैठने की आयु तक अपनी बोलने की शक्ति ही खो बैठते थे।
सुल्तान महमूद द्वितीय विद्वान और सभ्य था। उसको बागबानी का भी बहुत शौक था। पैलेस के एक प्रांगण में दुर्लभ प्रजातियों के वृक्ष, लताएँ और पुष्पों के पौधे लगवाए गए थे। ट्यूलिप पुष्प तो इस उद्यान की शोभा थे। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि हालैण्ड में ट्यूलिप का प्रवेश यहीं से हुआ था। हालैण्ड का क्यूकेनहाफ ट्यूलिप गार्डन विश्व का सबसे बड़ा ट्यूलिप गार्डन है। 18वीं सदी में सुल्तान अहमद तृतीय इस्तांबुल में ट्यूलिप फेस्टिवल का आयोजन करवाता था। बिजली तो उस समय थी नहीं। कल्पना कीजिये कि रात्रि के समय लालटेनों की रोशनी में जगमगाते खूबसूरत ट्यूलिप और कछुओं की पीठ पर जलती मोमबत्तियों के प्रकाश में उद्यान की शोभा कितनी मनोहारी होती होगी!
तोपकापी म्यूज़ियम में रखा हुआ है विश्व प्रसिद्ध ‘कासिकी’ हीरा। इसको ‘स्पूनमेकर’स’ डायमंड भी कहते हैं। इस हीरे के चारों ओर छोटे-छोटे हीरे जड़े हैं। इस हीरे के साथ अनेक किंवदंतियाँ जुड़ी हैं। एक किंवदंती के अनुसार 1669 ई में एक तुर्की मछुआरे को यह कूड़े के ढेर में मिला था। कीमत से अनजान उसने इसको एक चम्मच बनाने वाले को लकड़ी के तीन चम्मचों के बदले में बेच दिया। शायद इसीलिए इसका नाम ‘स्पून मेकर’स’ डायमंड पड़ गया हो।
हीरे-जवाहरात जड़ित, स्वर्णमंडित संगीतमय बॉक्स का निर्माण स्थान भारत है। 18 वीं सदी में यह बॉक्स तत्कालीन तुर्की सम्राट को उपहारस्वरूप दिया गया था। इसमें आज भी भारतीय शास्त्रीय लोक नृत्यों के संगीत की धुनें सुनी जा सकती हैं।
1964 ई में निर्मित प्रख्यात हालीवुड फिल्म तोपकापी का मशहूर डैगर 1747 ई में सुल्तान महमूद प्रथम ने एशिया के बादशाह को भेंट में देने के लिए तैयार करवाया था। दुर्भाग्यवश उसको देने से पहले ही बादशाह की हत्या कर दी गयी। बाद में सुल्तान महमूद ने वह डैगर अपने ही पास रख लिया।
रूबी जड़ित भव्य स्वर्णिम सिंहासन देख कर आँखें चौंधिया जाती हैं। किंवदंती के अनुसार यह राजसिंहासन नादिरशाह ने सुल्तान महमत को भेंट में दिया था।
अया सोफिया/ हेगीया सोफिया
भव्य तोपकापी पैलेस के बाद अन्य दर्शनीय स्थल है-अया सोफिया/ हेगीया सोफिया। यह तुर्की के समग्र इतिहास का साक्षी है।537 ई में ईसाई सम्राट जास्टीनियम प्रथम ने इस विशाल चर्च का निर्माण करवाया था। इसके गुंबद का घेरा 100फीट और ऊंचाई 200 फीट है। इस चर्च का कार्यभार संभालने के लिए 60 से 80 पादरियों और 76 से 100 द्वारपालों की ज़रूरत पड़ती थी। प्रभु यीशु मसीह के जीवन के अंतिम दिन को दर्शाते भित्तिचित्र देख कर दर्शकों की आँखें नम हो जाती हैं। कई सदियों तक इसकी छत विश्व की विश्व की विशालतम छत मानी जाती रही। गुंबद की खिड़कियों से छन कर आता सूर्य का प्रकाश इमारत के कण-कण को सुनहरे रंग में रंग देता है। दर्शकों का हृदय भी उजास और उष्णता से भर जाता है
ओटोमन साम्राज्य की स्थापना के तुरंत बाद यह चर्च मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया था। गुंबद के चारों ओर चार मीनारें बनवा दी गयी। धर्म निरपेक्ष गणतन्त्र राष्ट्र बनने के उपरांत कमाल अतातुर्क ने घोषणा कर दी कि यह न चर्च होगा न ही मस्जिद बल्कि सर्वधर्म समन्वय की भावना को दर्शाता एक सेक्युलर म्यूज़ियम होगा। अपनी विशिष्ट स्थापत्य कला, भव्य भित्तिचित्रों व शिल्पाकृतियों के कारण यह सम्पूर्ण विश्व के पर्यटकों का लोकप्रिय दर्शनीय स्थल है।
नीली मस्जिद-
ओटोमन बादशाह सुल्तान अहमद ने भव्य अया सोफिया/ हेगीया सोफिया से प्रभावित हो कर उससे श्रेष्ठ मस्जिद बनवाने का फैसला किया। नीली मस्जिद उसी का परिणाम है। सामान्यतः मस्जिद के ऊपर चार मीनारें होती हैं लेकिन नीली मस्जिद के ऊपर छह मीनारें हैं। रंगीन काँच की खिड़कियाँ, अनेक गुंबद, छह मीनारें तथा आसपास का शांत वातावरण अतीव सुखद है। भीतरी भाग 20,000 पुरानी नीली टाइलों से अलंकृत होने के कारण यह नीली मस्जिद के नाम से मशहूर हो गयी। 16वीं सदी में उकेरे गए चित्ताकर्षक भित्तिचित्र इसके सौंदर्य में चार चाँद लगा देते हैं। दोपहर की नमाज़ अदा करने के बाद मस्जिद से बाहर आती नमाज़ियों की अपार भीड़ देखते ही बनती है। बाउंड्रीवाल के बाहर सुल्तान अहमत, उनकी पत्नी और तीन बेटों की कब्रगाहें हैं। मस्जिद के पिछवाड़े में है ‘वक्फ कार्पेट म्यूज़ियम’ इसमें तुर्की के प्राचीन कालीन रखे हुए हैं ।
हिप्पोड्रोम
समीप ही है हिप्पोड्रोम। बाइजेंटाइन तथा रोमन काल की ही भांति वर्तमान में भी यहाँ पर मनोरंजन के लिए रथों तथा घुड़दौड़ प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।
ग्रांड बाज़ार –
सुल्तान अहमत स्क्वेयर में 500 वर्ष पुराना विशाल ग्रांड बाज़ार तुर्की के इतिहास तथा धर्म के बीच एक शानदार व्यावसायिक केंद्र है। इसमें 4,000 दुकाने हैं। बिजली के आविष्कार से पहले यहाँ की ऊंची छतों पर कैरोसीन के लैम्प लटकते थे। हैरानी की बात नहीं कि इस कारण से बाज़ार में कई बार आग लगी और कई बार इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। बाज़ार में आभूषण,फर्नीचर, कपड़ों और तांबे के सामान की दुकानों के साथ-साथ रेस्टौरेंट और फव्वारे भी हैं। तुर्की में एक मशहूर कहावत है कि खरीददार एक सिरे से बाज़ार में खाली हाथ घुसता है तो दूसरे सिरे से बीवी,दहेज,फर्नीचर से भरा घर और ताउम्र अदा न होने वाला कर्ज़ लेकर बाहर निकलता है।
तुर्की वासी अपने आप को योद्धा और प्रशासक कहलवाना पसंद करते हैं। दूकानदारी में उनकी विशेष रुचि नहीं है। इसलिए अधिकांश दुकानदार यहूदी,ग्रीक तथा आर्मेनियन्स हैं। सभी दूकानदारों के व्यापार करने के तौर-तरीके एक जैसे हैं।
ग्रांड बाज़ार के पीछे एक हज़ार साल पुरानी गलियों में शिल्पकार रहते हैं। इन के द्वारा निर्मित कलाकृतियाँ, आभूषणों की भारी मांग रहती है। समोवर शिल्पकार किसी भी असली एंटिक की प्रतिकृति एक घंटे में तैयार कर देते हैं। चर्मकार लिनन की तरह मुलायम चमड़े का सामान तैयार करने में माहिर हैं तो सुनार दुल्हनों की बाँहों पर सजाने के लिए खूबसूरत ब्रेसलेट बनाते हैं। जितना अधिक धनी सम्पन्न परिवार होगा,दुल्हन की बाँहों पर उतने ही ज़्यादा ब्रेसलेट सज़े दिखाई देंगे।
मसाला बाज़ार (स्पाइस मार्केट)-
तीन सौ साल पुराने मिस्र मार्केट को मसाला बाज़ार भी कहा जाता है। यहाँ की तीन चीज़ें बहुत मशहूर हैं-भुनी मकई, सूखी सब्जियाँ और मसाले। जगह-जगह कालीन की दुकानें हैं। इन में हर कीमत के बढ़िया और खूबसूरत कालीन मिलते हैं। मसाला बाज़ार में केसर से लेकर शक्तिवर्धक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। एक दुकान है जो 1777ई से मिठाइयाँ बेच रही है। उस समय अलिमुहिद्दीन हाजी बेकार ने एक मिठाई तैयार की थी जो हज की लम्बीयात्रा में खराब नहीं होती थी। जल्दी ही यह मिठाई पूरी दुनिया में मशहूर हो गयी। समय के साथ इसको बनाने की विधि में थोड़ा हेर-फेर अवश्य हो गया है लेकिन दुकान आज भी उसी स्थान पर मौजूद है।
सुल्तान अहमत स्क्वेयर में बजट के अनुरूप सस्ते,सुविधाजनक छोटे होटल हैं। अधिकांश होटल निजी आवासगृहों में हैं,इन का संचालन परिवार का मुखिया करता है। इन में एयरपोर्ट से रिसीव करने से ले कर घूमने-फिरने, विशिष्ट स्थानों पर खान-पान तथा ग्रांड बाज़ार में खरीददारी करने की व्यवस्था रहती है। एक दिक्कत है। नहाने के लिए इन में बाथरूम बहुत छोटे होते हैं लेकिन एक आकर्षण इस कमी को पूरा कर देता है। प्रायः सभी होटलों में टेरेस गार्डन हैं। वहाँ से सागर तथा भव्य दर्शनीय इमारतों का चित्ताकर्षक दृश्य दिखाई देता है।
सुल्तान अहमत स्क्वेयर से छह कि.मी दूर तकसीम है। यहाँ पुरानी मस्जिदों के बीच नयी ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी हैं। होटल के कमरे की खिड़की से बोसपोरस और पुराने इस्तांबुल की स्काईलाइन दिखाई देती है। बोसपोरस पर निर्मित पुल एशिया तथा यूरोप के महाद्वीपों को जोड़ता है। सागर तट पर इस्तांबुल की सबसे ज़्यादा महंगी प्रापर्टी है।
यहाँ का बैले नृत्य सामान्य नृत्य नहीं है अपितु नृत्यकला की विशिष्ट शैली है। इसमें पारंगत होने के लिए विशिष्ट साधना करनी पड़ती है।
कानून,व्यवस्था, साफ-सफाई की हालत सामान्य है। बसें,ट्राम खचाखच भरी रहती हैं,सवारियाँ बाहर लटकी रहती हैं। बेफिक्र हो कर सैर-सपाटा, मौज-मस्ती और खरीददारी की जा सकती है। सूरज ढलने पर पूरा शहर बिजली की रोशनी में सोने की तरह दमकने लगता है। इतिहास के आईने में झिलमिल करता इस्तांबुल वास्तव में सम्पूर्ण विश्व की अनुपम धरोहर है।
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प्रमीला गुप्ता