श्रीलंका के मध्य प्रांत में दंबूला नगर के समीप उत्तर में मताले ज़िले में स्थित है पुरातन सिगरिया ( सिंहगिरी अथवा सिंह पाषाण खंड)। इस उच्च,विशाल पाषाण पर निर्मित राजप्रासाद तथा दुर्ग ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्विक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यह राजप्रासाद व दुर्ग सागरतल से 370 मीटर ऊंचे,विशाल पाषाण पर निर्मित है।
श्रीलंका के प्राचीन अभिलेखों के अनुसार 477-495 ई में सम्राट कश्यप ने इस स्थान पर अपना राजप्रासाद बनवाया तथा उसको चारों तरफ से भव्य रंगीन भित्तिचित्रों से अलंकृत किया। ऊपर जाते समय आधे रास्ते के समतल भाग में विशाल सिंह की आकृति का प्रवेशद्वार निर्मित है। उसके पंजों के बीच से गुजर कर मुख के भीतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। सिंह का मुख तो ध्वस्त हो गया है लेकिन सिंह के पंजे तथा आरंभिक सीढ़ियाँ अभी भी संरक्षित हैं। ऊपर जाने के लिए इन सीढ़ियों की संरचना अद्भुत, अद्वितीय है। संभवतः इस संरचना के आधार पर इस स्थान का नाम ‘सिंहगिरी’ अर्थात सिंह पाषाण पड़ गया हो। सम्राट कश्यप के निधन के बाद राजधानी और राजप्रासाद दोनों ही वीरान हो गए। इस स्थान का उपयोग बौद्ध भिक्षुओं के आवासस्थल के रूप में होने लगा। 14वीं शताब्दी तक यह स्थान बौद्ध विहार के रूप में प्रयुक्त होता रहा। उसके बाद घने जंगलों के बीच गुमनामी के अंधेरे में विलीन हो गया।
1982 ई में यूनेस्को ने इसको प्राचीन नगर योजना के सर्वोत्कृष्ट संरक्षित स्थान के रूप में विश्व विरासत घोषित किया था।
सिगरिया के उत्खनन में प्राप्त पुरातत्त्वशेषों से ज्ञात होता है कि यहाँ पर प्रागैतिहासिक काल में भी मानवबस्तियाँ रही होंगी। चट्टानों तथा गुफाओं में निर्मित आश्रयस्थल इस तथ्य की पुष्टिकरते हैं। ई पू तीसरी शताब्दी में यहाँ पर भिक्षु व सन्यासी रहते होंगे। सिगरिया पाषाण के पूर्व में चट्टान में निर्मित ‘अलीगला’ आश्रयस्थल प्राचीनतम माना जाता है।
सिगरिया पाषाण के चारों तरफ चट्टानों और गुफाओं में ये आश्रयस्थल निर्मित थे। कुछ आश्रयस्थलों के मुहानों पर स्थित चट्टानों पर उत्कीर्ण अभिलेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ पर बौद्ध भिक्षु रहते थे तथा इन का निर्माण ई पू तीसरी से पहली शताब्दी के बीच हुआ था।
477 ई में सम्राट धातुसेन के अवैध पुत्र कश्यप ने सेनापति के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। पिता की हत्या कर राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। वैध उत्तराधिकारी मोगलाना जान बचा कर दक्षिण भारत भाग गया। मोगलाना के वापिस आने के भय से कश्यप ने ऊंचाई पर इस विशाल पाषाण पर अपना राजप्रासाद, दुर्ग तथा ऐशो-आराम के लिए अलग महल बनवाया। उसके शासन काल 477-495 में सिगरिया में एक नगर बस गया। यहाँ सुरक्षा के लिए एक दुर्ग भी निर्मित करवाया गया। अधिकांश संरचनाएँ -राजप्रासाद,किले, दुर्ग तथा उद्यान पाषाण के शिखर व उसके आसपास निर्मित हैं।
जैसी कि आशंका थी, मोगलाना ने विशाल सेना संगठित की और राजगद्दी वापिस लेने के लिए सिगरिया पर आक्रमण कर दिया। कश्यप को हार का मुंह देखना पड़ा। कश्यप की सेना भाग खड़ी हुई और कश्यप ने अपनी छाती में तलवार घोंप कर आत्महत्या कर ली। मोगलाना ने अपनी राजधानी दोबारा अनुराधापुर में स्थापित कर ली। सिगरिया को बौद्ध धर्मावलम्बियों को दे दिया। 13वीं, 14वीं शताब्दी तक यहाँ पर बौद्ध विहार रहे। उसके बाद की विशिष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। उस समय तक यह श्रीलंका के महायान और थेरवाद बौद्ध सम्प्रदायों का विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान था।
1831 ई में ब्रिटिश सैन्याधिकारी मेजर जोनाथन ने पोलोनुरवा जाते समय झाड़ियों से ढके सिगरिया के शिखर पर स्थित खंडहरों को देखा। इस संबंध में पुरातत्त्वविदों को बताया। 1890 ई में पुरातत्त्वविदों ने इस स्थान पर छोटे स्तर पर उत्खनन कार्य आरंभ किया। बाद में एच.सी.पी.बेल की अध्यक्षता में व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य हुआ। श्रीलंका सरकार ने भी इसके महत्त्व को समझा। त्रिकोणीय परियोजना के अंतर्गत 1982 ई में सिगरिया पर विशेष काम हुआ।
सम्राट कश्यप ने 5वीं शताब्दी में सिगरिया में किले का निर्माण करवाया था। विशाल पाषाण के समतल शिखर पर राजप्रासाद के पुरातत्त्वशेष संरक्षित हैं। नीचे मध्य स्तर पर सिंहद्वार, आकर्षक भित्तिचित्रों से अलंकृत दर्पण दीवार ( Mirror Wall), किले की सुरक्षा के लिए निर्मित परकोटों के पीछे अवस्थित है एक अन्य प्रासाद। यह महल तथा किला दोनों था।
पुरातन सिगरिया लगभग 2 मील लंबा और 0.68 मील चौड़ा था। सुरक्षा के लिए चारों तरफ ऊंची दीवारें, खाइयाँ बनी हैं। इनमें जल भरा है। पहाड़ी के नीचे एक बड़ी खंदक है। कहते हैं कि इस खंदक के भीतर आज भी मगरमच्छ रहते हैं। लगता है उस समय इस विशाल पाषाण का उपयोग दुर्ग के रूप में किया जाता होगा।
सिगरिया के चारों तरफ सुव्यवस्थित, सुनियोजित चित्ताकर्षक उद्यान हैं। इन में जलोद्यान, पाषाण उद्यान तथा टेरेस (सीढ़ीदार) उद्यान विशिष्ट रूप से सुनियोजित एवं दर्शनीय हैं।
जलोद्यान-
किले/ राजप्रासाद की तरफ जाने वाले प्रमुख मार्ग के दोनों ओर पानी के सममित ( सिमिट्रिकल) जलकुंडों को ही जलोद्यान कहते हैं। इन कुंडों में बने फव्वारे वर्षा ऋतु में आज भी काम करते हैं। छिद्र में एक तरफ से फूँक मारने पर फव्वारे के दूसरी से पानी बाहर आ जाता है। यह जलोद्यान पश्चिमी परिसर में है। यहाँ पर तीन जलोद्यानों के अवशेष मिले हैं। पहले उद्यान के चारों तरफ जल है। यह प्राचीन चारबाग उद्यान शैली पर निर्मित है। दूसरे उद्यान में मार्ग के दोनों तरफ लम्बे, गहरे जलाशय हैं। दो सर्पाकार जल-धाराएँ जलाशयों तक जाती हैं। इस में चूना पत्थरों से बने फव्वारे हैं। ये फव्वारे आज भी चलते हैं। उद्यान के दोनों तरफ दो द्वीप हैं। इन द्वीपों के समतल भाग पर ग्रीष्मकालीन महल निर्मित है। तीसरा जलोद्यान पहले दोनों उद्यानों की अपेक्षा थोड़ा ऊंचाई पर है। इसके उत्तर-पूर्व में अष्टकोणीय जलाशय है। ईंटों व पत्थर से निर्मित किले की प्राचीर इस उद्यान के पूर्वी छोर पर है। सिगरिया के इन उद्यानों को महाद्वीप में प्राचीनतम माना जाता है।
पाषाण उद्यान-
ये उद्यान विशाल पाषाणों को जोड़ कर पगडंडियों के रूप में बनाए गए हैं। ये सिगरिस पाषाण शिला के नीचे पहाड़ियों की उत्तरी ढलानों पर बने हैं। अधिकांश पाषाणों पर कोई भवन अथवा पेवेलियन निर्मित है।
टेरेस (सीढ़ीदार) उद्यान-
सिगरिस पाषाण के नीचे प्राकृतिक पहाड़ी पर स्थित है यह उद्यान। यहाँ की पगडंडियों से ऊपर शिखर तक जाने के लिए प्राचीर के साथ-साथ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। उद्यान की सीढ़ियाँ चूना-पत्थरों से निर्मित हैं।
भित्तिचित्र-
सिगरिया की चट्टानों पर 5वीं शताब्दी में उत्कीर्ण चित्ताकर्षक भित्तिचित्र हैं। लगभग 500 चित्रों में से अब केवल दर्जन भर शेष बचे हैं। इन भित्तिचित्रों को देख कर सहसा अजंता के भित्तिचित्रों की स्मृति मन में कौंध जाती है। सिगरिया के चित्रों में लाल,पीला हरा व काला रंग इस्तेमाल किया गया है। अजंता का नीला रंग इन चित्रों में नहीं दिखाई देता है। भित्तिचित्रों में नारी का चित्रण अप्सराओं के रूप में किया गया है। सभी चित्र अतीव भावपूर्ण तथा कलात्मक हैं। इनमें नारियों को पुष्पवर्षा करते हुए दिखाया गया है। उनके साथ सहायिकाओं का भी चित्रण है। सभी आकृतियाँ प्राभावोत्पादक व मनोहारी हैं। इन की मुखाकृति दक्षिण भारतीय नारियों के सदृश है। कटि से नीचे का भाग बादलों से ढका है। खड़े होने की मुद्रा, सजग नेत्र, कलात्मक केश विन्यास तथा सूक्ष्म, आकर्षक अलंकरण मुग्धकारी है। ये भित्तिचित्र एक ओर अजंता चित्र शैली का श्रीलंका में प्रसार का प्रतीक हैं तो दूसरी ओर इन में स्थानीय अभिव्यंजना भी निहित है। अभिव्यक्ति एवं चित्रकला की दृष्टि से इस स्थल को सिंहलद्वीप की अजंता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
दर्पण दीवार (Mirror Wall) –
शिखर पर जाने के लिए सीढ़ियों से ऊपर जाते समय एक ऐसी दीवार आती है जो किसी लेप से एकदम चिकनी कर दी गयी है। यह इतनी चिकनी है कि इसमें अपना प्रतिबिंब उसी प्रकार दिखाई देता है जिस प्रकार दर्पण में दिखाई देता है। छठी से चौदहवीं शताब्दी तक इस मार्ग से गुजरने वाले यात्री दीवार पर कविता,लेख वगैरह लिखते रहते थे। इससे सिद्ध होता है कि यह स्थल एक हज़ार साल पहले भी लोकप्रिय रहा होगा। अब दीवार पर कुछ भी लिखने की सख्त मनाही है।
राजप्रासाद-
सिगरिया का प्रमुख आकर्षण है शिखर पर निर्मित विशाल राजप्रासाद के पुरातत्त्वशेष। इसकी संरचना स्थापत्यशैली के दृष्टिकोण से अद्वितीय है। सटीक अनुपात तथा गुणवत्तापूर्ण उत्कृष्ट निर्माण इसकी विशिष्टता है। जलसंरक्षण के लिए टैंक सीधे चट्टान में निर्मित हैं। परिसर के पश्चिमी भाग में नहरें,झीलें,बांध,पुल, फव्वारे दृश्यावली को मनमोहक बना देते हैं।
पठार रूपी शिखर पर पुरातत्त्व में रुचि रखने वालों के लिए बहुत कुछ दर्शनीय है। नहरें,जलनिकासी के लिए बनी नालियाँ आज भी विद्यमान हैं। जनता से भेंट करने के लिए दीवान-ए-आम जैसे पत्थर के चबूतरे, पहरेदारों के रहने की व्यवस्था पर्यटकों को आश्चर्यचकित कर देती है। एक तरफ विशाल घने वन तो दूसरी तरफ दूर-दूर तक फैले धान के खेत मंत्रमुग्ध कर देते हैं। वस्तुतः श्रीलंका में पुरातन सिगरिया ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्विक दृष्टिकोण से अतीव महत्त्वपूर्ण है। स्थानीय लोग तो इसको दुनिया का आठवाँ अजूबा मानते हैं। इसको देखने के लिए प्रतिवर्ष पूरे विश्व से अगणित भ्रमणार्थी आते हैं। प्र्कृती तथा मानवनिर्माण के अद्वितीय सामंजस्य आश्चर्यचकित करने वाला है।
सिगरिया पूरे विश्व के साथ हवाई मार्ग से जुड़ा है। श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। कोलम्बो से कार अथवा टैक्सी से सिगरिया पंहुचने में चार घने लगते हैं। ट्रेन कैंडी तक जाती है वहाँ से आगे सड़क मार्ग से जाना पड़ता है। समीपस्थ नगर दंबूला है। वहाँ से सिगरिया केवल 25 मील दूर है।
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प्रमीला गुप्ता