दक्षिण-पूर्वी एशिया के छोटे से देश कंबोडिया की अपने विशाल,भव्य विष्णु मंदिर के कारण सम्पूर्ण विश्व में एक विशिष्ट पहचान है। इस सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विश्व विरासत को देखने के लिए प्रतिवर्ष यहाँ पर लाखों पर्यटक आते हैं। प्राचीन अभिलेखों में कंबोडिया का वर्णन कंबुज देश के नाम से किया गया है। किसी समय अंगकोरथोम कंबुज देश की राजधानी थी। इसका मूल नाम यशोधरपुर था। यहाँ पर खमेर शासकों का आधिपत्य था। मेकांग नदी के किनारे सिमरीप शहर में स्थित यह मंदिर विश्व का विशालतम हिन्दू मंदिर है।
कंबुज की राजधानी अंगकोरथोम के दुर्ग से लगभग डेढ़ कि.मी दक्षिण में स्थित है अंगकोरवाट। संभवतः इसी कारण से मंदिर का नाम ‘अंगकोरवाट मंदिर’ पड़ गया। इतिहासकारों के मतानुसार इस मंदिर का निर्माण कार्य सूर्यवर्मन द्वितीय ( 1112-1151) ने आरंभ करवाया था। असमय निधन हो जाने के कारण निर्माण पूरा नहीं हो पाया था। उनकी मृत्यु के बाद उन के उत्तराधिकारी धरनीन्द्रवर्मन (1152-1181) ने इस का निर्माण पूरा करवाया।
चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में पश्चिम के सीमावर्ती प्रदेश के थाई लोगों ने कंबुज देश पर बार-बार आक्रमण करने आरंभ कर दिये और लूट-पाट मचाने लगे। विवश हो कर खमेर शासकों ने अपनी राजधानी स्थानान्तरित कर ली । यह नगर धीरे-धीरे बांस के घने जंगलों में विलुप्त हो गया। सभ्य जगत की आँखों से ओझल हो कर खंडहरों में परिवर्तित हो गया। 1861 ई में एक फ्रांसीसी ने घने जंगलों के बीच खंडहरों में परिवर्तित इस अमूल्य सम्पदा को देखा और पुरातत्वविदों को इस स्थान के बारे में सूचित किया। उन्होने इस भव्य मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य आरंभ कर गहन अध्ययन किया।
अंगकोरवाट की स्थापत्यशैली अद्वितीय है। कुछ पुरातत्वविदों,वास्तुविदों के विचार में मंदिर की स्थापत्य शैली भारत के चोलवंश शासकों द्वारा निर्मित मंदिरों की स्थापत्यशैली से मिलती है। वास्तव में इसमें चोल तथा खमेर स्थापत्यशैली का सम्मिश्रण परिलक्षित होता है। मिस्र तथा मेक्सिको के स्टेप पिरामिडों की भांति यह मंदिर सीढ़ीदार है। मंदिर के चारों तरफ साढ़े तीन कि मी लम्बी पत्थरों से निर्मित दीवार है। उसके बाहर 30 मीटर खुली ज़मीन और फिर सुरक्षा के लिए जलपरित खाई है। खाई की चौड़ाई लगभग 700 फीट है। दूर से यह खाई झील की तरह दिखाई देती है। खाई को पार करने के लिए मंदिर के पश्चिम में पुल बना हुआ है। पुल पार करने के बाद मंदिर तक पंहुचने के लिए ग्यारह मीटर चौड़ा और चार सौ मीटर लम्बा पत्थरों का रास्ता बना हुआ है।
अंगकोरवाट मेरु पर्वत का प्रतीक माना जाता है। विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है। इसकी अद्वितीय स्थापत्य शैली,अलंकरण,सांस्कृतिक महत्ता के आधार पर 1992 ई में यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने इसको विश्व धरोहर घोषित कर दिया था। यही नहीं 1983 ई से यह राष्ट्र के सम्मान के प्रतीक के रूप में राष्ट्रध्वज की शोभा बढ़ा रहा है।
162 हेक्टेयर भूमि पर फैले अंगकोरवाट मंदिर की तीन मंज़िल हैं। प्रत्येक मंज़िल से ऊपरी मंज़िल पर पंहुचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई है। प्रत्येक मंज़िल पर निर्मित खंड भव्य प्रतिमाओं से सुशोभित है। सब से ऊपरी मंज़िल पर पंहुचने के लिए सीढ़ियाँ पहली मंज़िल की सीढ़ियों की तुलना में दोगुनी हो गयी है। प्रत्येक मंज़िल पर स्थित भाग में आठ गुंबज हैं। प्रत्येक गुंबज की ऊंचाई 180 फीट है। ऊपरी खंड पर भी एक गुंबज है। मध्य में गर्भगृह है । इसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस मंज़िल पर स्थित मुख्य मंदिर के शिखर की ऊंचाई 213 फीट है।
अंगकोरवाट की भव्य मूर्तिकला चित्ताकर्षक है। दीवारों पर उत्कीर्ण भित्तिचित्र, आलों में रखी मूर्तियों , स्थान-स्थान पर किए गए अलंकरण को देख कर पर्यटक चित्रलिखित से रह जाते हैं। आलों में रखी जीवंत,सुंदर नवयौवनाओं की मूर्तियाँ मन मोह लेती हैं। उनके परिधान,भाव-भंगिमाएँ,मुखाकृतियाँ देख कर कंबुज नृत्यांगनाओं का स्मरण हो आता है ।
मंदिर के गलियारों में निर्मित शिल्पाकृतियों के कथानकों का मुख्य आधार रामायण,महाभारत की कथाएँ हैं। शिव,विष्णु के अनेक रूपों को चित्रित किया गया है। बलि-वामन,स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश पुराण तथा रामायण के आख्यानों को वर्णित करते अनेक मुग्धकारी चित्र हैं। भित्तिचित्रों में भी रामकथा संक्षिप्त में उत्तीर्ण है। यह रामकथा वाल्मीकि के आदिकाव्य पर आधारित है। यह शृंखलाबद्ध रूप में रावणवध हेतु देवताओं की आराधना से आरंभ होती है। परवर्ती चित्रों में अशोकवाटिका में हनुमान की उपस्थिती,बाली-सुग्रीव युद्ध, राम-रावण युद्ध, सीता की अग्नि परीक्षा और राम की अयोध्या वापसी के दृश्य हैं। अंगकोरवाट में रूपायित रामकथा विरल और संक्षिप्त है। देख कर पर्यटक भाव विभोर हो जाते हैं।
अंगकोरवाट का विशाल आकार, सुनियोजिन, कलात्मक -उत्कृष्ट मूर्तिकला, भव्य अलंकृत स्थापत्यशैली का अप्रतिम उदाहरण है। एक ओर अद्वितीय, भव्य स्थापत्य शैली तो दूसरी ओर नीचे से ऊपर शिखर तक वैविध्यपूर्ण, विस्मयकारी अलंकरण देख कर दर्शक का हृदय आनंद से उद्वेलित हो उठता है। वस्तुतः यह खमेर कला का अनुपम, विकसित कलात्मक अविस्मरणीय स्मारक है।
पुरातत्त्ववेत्ताओं व इतिहासकारों के मन में यह रहस्य जानने की उत्कंठा आज भी विद्यमान है कि इस विशाल, भव्य मंदिर के निर्माण के मूल में क्या भावना रही होगी? कुछ के विचार में सूर्य वर्मन द्वितीय ने अपनी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए इस मंदिर का निर्माण करवाया था। इसमें उनके अस्थि अवशेष भी संरक्षित थे। उनको विष्णु का अवतार माना जाता था। मंदिर में भगवान विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। 14वीं,15वीं शताब्दी में बौद्ध अनुयायियों ने इस पर आधिपत्य कर लिया था।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अंगकोरवाट में किए गए पुरातत्त्विक उत्खनन से खमेरों के धार्मिक विश्वासों,उनकी कला, शिल्प तथा तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों पर विस्तृत प्रकाश पड़ा है। प्रतिवर्ष सम्पूर्ण विश्व से अगणित पर्यटक इस प्राचीन हिन्दू-बौद्ध केंद्र को देखने के लिए आते हैं। वे यहाँ पर केवल वास्तुशास्त्र के अप्रतिम सौंदर्य का ही आनंद नहीं लेते अपितु यहाँ पर सूर्योदय तथा सूर्यास्त का मुग्धकारी दृश्य भी देखने के लिए आते हैं।
अंगकोरवाट भारत के साथ कंबुज (कंबोडिया) देश के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों का परिचायक है। इसके निर्माण में भारतीय शिल्पकला, विषयवस्तु के साथ-साथ क्षेत्रीय प्रभाव भी परिलक्षित होता है। अंगकोरवाट पूरे विश्व के साथ सम्बद्ध है। समीपस्थ एयरपोर्ट सिमरीप अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट है। केवल अंगकोरवाट के भ्रमणार्थियों के लिए सिमरीप एयरपोर्ट पर उतरना सुविधाजनक है। एयरपोर्ट से टैक्सी से 30 मिनट का रास्ता है। टुक-टुक ( आटोरिक्शा) भी आसानी से मिल जाती है। मंदिर दिखाने के लिए गाइड मिल जाते हैं।
अंगकोरवाट का भ्रमण करने के लिए नवम्बर-दिसम्बर सर्वोत्तम समय है। यद्यपि इस समय पर्यटकों की भीड़ भी रहती है। जो भी हो इस विशाल हिन्दू मंदिर की एक बार यात्रा वांछनीय है।
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प्रमीला गुप्ता