दक्षिण-पूर्वी एशिया में स्थित इन्डोनेशिया के मध्य जावा प्रांत में है विश्व का विशालतम महायान बौद्ध मंदिर-बोरोबुदूर। ‘ बोरोबुदूर’ शब्द की व्युतपत्ति दो शब्दों के समनव्य से हुई है। ‘बोरो’ अर्थात ‘विशाल’ व ‘बुदूर’ अर्थात ‘बुद्ध’। अतः विशाल बुद्ध। जावा की स्थानीय भाषा में ‘बुदूर’ का अर्थ पर्वत भी है। एक उच्च पर्वत की भांति उन्नत शीर्ष के साथ खड़े ‘बोरोबुदूर’ मंदिर का यह अर्थ भी सार्थक दिखाई देता है। दो ज्वालामुखी पर्वतों व नदी के बीच स्थित होने के कारण यहाँ की भूमि अत्यधिक उपजाऊ है।
पुरातत्त्वविदों के अनुसार बोरोबुदूर का निर्माण आठवीं सदी में प्रारम्भ हुआ था। उस समय शैलेंद्र राजवंश के सम्राट श्री विजय का शासन था। इसका निर्माणकार्य लगभग तीन सदियों (आठवीं से दसवीं) तक चला लेकिन इसकी सम्पूर्ण रूपरेखा प्रारम्भ में ही परिकल्पित कर ली गयी थी। यही कारण है कि कई चरणों में निर्मित होने के बाद भी इसके विभिन्न भागों में अपूर्व सामंजस्य देखने को मिलता है। मान्यता के अनुसार इस विशाल अद्वितीय संरचना के वास्तुशिल्पी गुणधर्मी थे लेकिन उनके जीवन के संबंध में अधिक कुछ ज्ञात नहीं है।
पंद्रहवीं शताब्दी में मुस्लिम आधिपत्य के बाद जनसामान्य ने इस स्थान का परित्याग कर दिया था। धीरे-धीरे यह विशाल मंदिर मानव दृष्टि से ओझल हो गया। इर्द-गिर्द घना जंगल उग आया। कई सदियों तक यह ज्वालामुखी की राख़ और घने जंगल तले दब कर इसी प्रकार मानव दृष्टि से ओझल रहा।
खोज व पुनर्निर्माण-
इस विलुप्त स्थान की खोज 1907 ई में लेफ्टिनेंट थॉमस स्टेमफोर्ड रैफल्स ने की थी। वे उस समय मध्य जावा के ब्रिटिश गवर्नर थे। उन्होने डच इंजीनियर एच.सी. कार्नेलिउस की सहायता से 20 वर्ष के अथक प्रयास से विश्व की इस अमूल्य सम्पदा के पुरातत्त्वशेष खोज निकाले। इसकी खोज व जीर्णोद्धार का श्रेय रैफल्स के अथक प्रयासों को जाता है।
इन्डोनेशिया सरकार ने यूनेस्को के सहयोग से इसका पुनर्निर्माण कार्य आरंभ किया। दोनों की संयुक्त परियोजना के अंतर्गत बोरोबुदूर का पुनर्निर्माण कार्य 1973 ई में पूरा कर लिया गया था। 1991 ई में यूनेस्को की विश्व विरासत समिति मे बोरोबुदूर को सांस्कृतिक धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान कर दी थी। पुनर्निर्माण के बाद यह मंदिर सम्पूर्ण विश्व के बौद्ध श्रद्धालुओं तथा पर्यटकों के आकर्षण का विशिष्ट केंद्र बन गया था।
संरचना-
मंदिर एक विशाल चबूतरे पर निर्मित है। चबूतरे पर एक के ऊपर एक नौ वेदिकाएँ बनी हुई हैं। नीचे से ऊपर पहली छह वेदिकाएँ वर्गाकार हैं तथा ऊपर की तीन वेदिकाएँ वृत्ताकार हैं। सब से ऊपर की वेदिका के ऊपर वृत्ताकार स्तूप निर्मित है।
नीचे की छह वेदिकाओं के चारों तरफ परिक्रमापथ बना हुआ है। परिक्रमापथ के दोनों ओर भित्तियों पर भगवान बुद्ध व बोधिस्त्वों के जीवन से सम्बद्ध सुंदर चित्र उत्कीर्ण हैं। प्रत्येक मंज़िल के प्रवेशद्वार पर दोनों ओर द्वारपाल के रूप में सिंह की प्रतिमा अवस्थित है। ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों की व्यवस्था है।
मंदिर के निर्माण में पत्थरों का उपयोग हुआ है। उस काल में इतने पत्थरों को एक स्थान पर किस प्रकार एकत्रित किया गया होगा, यह मानवबुद्धि से परे की बात है।
ऊपरी तीन स्तूपों की संरचना, ज्यामितीय व समरूपता आश्चर्यजनक रूप से अद्वितीय है। सम्पूर्ण संरचना पत्थरों को आपस में जोड़ कर की गयी है। जोड़ने के लिए गारे,चूने अथवा कीलों का उपयोग नहीं किया गया है। स्तूपों में बने छिद्रों से बाहर झाँका जा सकता है। प्रत्येक स्तूप कमलपुष्प के आकार में खिला है।
जालीदार छिद्रों वाले प्रत्येक छिद्र में भगवान बुद्ध की प्रतिमा धर्मचक्र परिवर्तन मुद्रा में अवस्थित है। यह मुद्रा गतिमान धर्मचक्र की प्रतीक है। दुर्भाग्यवश बुद्ध की अधिकांश प्रतिमाएँ शीर्षरहित हैं। केवल धड़ बचा है। इन बौद्ध प्रतिमाओं के शीर्ष विश्व के अनेक संग्रहालयों अथवा व्यक्तिगत संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं।
ऊंचाई से देखने पर बोरोबुदूर एक स्तूप की भांति दिखाई देता है। इसका ज्यामितीय तलविन्यास ‘बौद्ध मंडला’ अथवा हिन्दू ‘श्री यंत्र’ की तरह दिखाई देता है। बोरोबुदूर का स्तूप अपनी विशालता में मिस्र के महान पिरामिड की याद दिलाता है। एक विद्वान ने तो बोरोबुदूर को पिरामिड के ऊपर निर्मित स्तूप बता डाला है।
वर्तमान में यह मंदिर विश्व में महायान बौद्ध धर्म का केंद्र माना जाता है। वस्तुतः यह विज्ञान तथा कला का अद्वितीय, अपूर्व सम्मिश्रण है। इसको देख कर मानवबुद्धि अचंभित हो जाती है।
भीतरी भाग-
मंदिर के भीतर 500 से अधिक शीर्ष रहित बौद्ध प्रतिमाएँ हैं। निचली मंज़िलों में पद्मासन में अवस्थित अधिकांश प्रतिमाएँ शीर्षरहित हैं। कुछ प्रतिमाएँ अन्य मुद्राओं में भी दिखाई देती हैं। ये मुद्राएँ हैं-
भूमि स्पर्श मुद्रा-
‘पृथ्वी साक्षी है’ अर्थात महाज्ञान की प्रतीक है।
वरद मुद्रा-
‘दान व परोपकार’ ( दानवीर बुद्ध की प्रतीक है)।
अभय मुद्रा-
‘ साहस व निर्भयता,’ संरक्षक बुद्ध की प्रतीक है।
ध्यान मुद्रा-
‘एकाग्रता व ध्यान’, समाधिस्थ भगवान बुद्ध
धर्मचक्र परिवर्तन मुद्रा-
यह गतिमान धर्मचक्र की प्रतीक है।
वितर्क मुद्रा-
‘तर्क एवं पुण्य’ की द्योतक है।
तीन लोकों का निरूपण-
मंदिर के तीन भाग प्रतीकात्मक रूप से ब्रह्मांड के तीन लोकों का निरूपण करते हैं। ये साधना के तीन चरणो को व्याख्यायित करते है: –
कामधातु-(इच्छाओं का संसार)-
यह मानव जीवन का निम्न स्तर है। इसमें मानव इच्छाओं के संसार में विचरण करता रहता है। निम्न वेदिकाओं की भित्तियों पर बोधिसत्वों की जातक कथाएँ उत्कीर्ण हैं।
रूपधातु-(रूपों का संसार)-
इच्छाओं को संयमित करने के बाद मानव इस स्तर पर पंहुच जाता है। इसको सगुण रूप माना गया है। इस स्तर की भित्तियों पर अंकित चित्र बुद्ध की इच्छा से अनिच्छा तक पंहुचने की यात्रा को दर्शाते हैं।
अरूप धातु (रूप रहित संसार)-
मूलभूत व विशुद्ध स्तर पर मानव व्यावहारिक वास्तविकता से ऊपर उठ कर ‘निर्वाण प्राप्ति’ कर लेता है। यह संत कबीर की भांति निर्गुण उपासना का प्रतीक है। इस स्तर के खंडों पर न कोई चित्र अंकित है न ही कोई शिल्पाकृति।
भित्तिचित्र-
बोरोबुदूर में भव्य अलंकरण देखने को मिलता है। अलंकृत भित्तियों को एक कतार में रख देने पर उनकी लम्बाई पाँच कि.मी होगी। मंदिर की भित्तियों तथा भीतरी भाग में कथा चित्र उत्कीर्ण हैं। चित्रों में मानव आकृति को त्रिभंग रूप में उकेरा गया है। इनमें वस्त्र, केश विन्यास, आभूषणों तथा पशुओं का भी सूक्ष्म चित्रण है। तत्कालीन जनसामान्य के जीवन को भी उकेरा गया है। भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बद्ध घटनाओं का चित्रण अतीव भाव प्रवणता से किया गया है। उनके जन्मस्थान, अश्व,बोधिवृक्ष इत्यादि के चित्र मनोहारी हैं। भारत की एलोरा गुफाओं की भांति ही संभवतः इन चित्रों में भी चटक रंगों का उपयोग किया गया हो।
किंवदंती है कि किसी समय बोरोबुदूर मंदिर झील के मध्य स्थित था और पानी पर तैरता हुआ दिखाई देता था। आधुनिक पुरातत्त्ववेताओं के मतानुसार हो सकता है कि किसी समय मंदिर के समीप कोई झील रही हो लेकिन मंदिर झील के मध्य स्थित नहीं था। जलनिकासी के लिए मगरमच्छ की आकृति का निकासमार्ग बना हुआ था।
बोरोबुदूर मंदिर तीन कतारबद्ध मंदिरों की शृंखला में से एक माना जाता है। अन्य दो मंदिर हैं- पवन तथा मेदुल। बोरोबुदूर मंदिर विश्व का सर्वाधिक विशाल बौद्ध मंदिर है। इसकी शिल्पाकृतियाँ सजीव व भाव प्रवण हैं। विशालता में अद्भुत रहस्यात्मकता है। इसके सृजनकर्ताओं ने भगवान बुद्ध की महानता से प्रभावित हो कर इस विशाल स्मारक के निर्माण करवाने का निर्णय लिया होगा। उन्होने पूरी आस्था के साथ आकार और भव्यता के दृष्टिकोण से इस अप्रतिम स्मारक का निर्माण करवाया।
इन्डोनेशिया सरकार तथा यूनेस्को के अथक प्रयासों के फलस्वरूप इस मंदिर का पुनर्निर्माण हो पाया। यूनेस्को ने इसको 1991ई में इसको विश्व विरासत घोषित कर दिया था। अब यह श्रद्धालुओं के लिए पुनः तीर्थस्थल तथा आस्था का केंद्र बन गया है। वर्ष में एक बार मई अथवा जून मास में पूर्णिमा के दिन श्रद्धालु सिद्धार्थ गौतम का जन्म,निधन, बुद्ध शाक्यमुनि के रूप में ज्ञान प्राप्ति के उपलक्ष्य में ‘वैशाख’ उत्सव मनाते हैं।
मंदिर में दर्शन करने का सर्वोत्तम समय सूर्योदय का समय है। इसके लिए दर्शनार्थियों को रात्रि की निद्रा का परित्याग करना पड़ता है। मध्य जावा में स्थित बोरोबुदूर मंदिर सम्पूर्ण विश्व से सम्बद्ध है। इन्डोनेशिया की राजधानी जकारता के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर विश्व के सभी देशों की विमान सेवाएँ उतरती हैं। बोरोबुदूर जोगजकारता से 40 कि.मी दूर है। यहाँ के हवाई अड्डे पर जकारता,बाली, सिंगापुर की विमान सेवाओं द्वारा पंहुचा जा सकता है। जोगजकारता में आवास,खान-पान की समुचित व्यवस्था है। बोरोबुदूर का भ्रमण करने के लिए पर्यटकों को सुविधापूर्वक आटो, टैक्सी मिल जाती हैं। बोरोबुदूर में भी रहने के लिए आवासगृह हैं। वहाँ जाने के लिए अगस्त से अक्तूबर के मध्य का समय उचित है। मंदिर के समीप ही स्मृति चिन्हों की दुकान है। इच्छा होने पर खरीदे जा सकते हैं। किसी भी पर्यटक के लिए विश्व के विशालतम, भव्य बौद्ध स्मारक ‘बोरोबुदूर’ अविस्मरणीय होगी।
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प्रमीला गुप्ता